Barabanki News.... प्रदेश की राजधानी लखनऊ से करीब 40 किमी दूर देवा की धरती पर हर बरस होने वाला देवा मेला मुशायरा मुल्क और दुनिया में अपनी अलग पहचान रखता है। 125 साल से ये परंपरा लगातार जारी है। वक्त बदला, लोगों के विचार बदले, यहां तक के मुशायरों के मक़ासिद तक बदले, लेकिन देवा मेला मुशायरा का मयार और वक़ार आज भी कायम रखा है। देवा मेला मुशायरे का सुनहरा इतिहास है। उर्दू अदब की तरक्की में की तारीख़ में इस मुशायरे का सिरे फेहरिस्त है। ये मुशायरा पूरे आलम में अदब और सक़फ़त की पहचान है।
(देवा मेला मुशायरा की तारीख पर देवा मेला मुशायरा कमेटी के सेक्रेट्री चौधरी तालिब नजीब का खुसूसी इंटरव्यू)
देवा मेला मुशायरे की तारीख़ शानदार है। आज से करीब सवा सौ साल पहले जब देवा में सूफी संत हाजी वारिस अली शाह ने अपने वालिद दादा मियां की याद में देवा मेला का आगाज किया, तो इसे दिलकश बनाने के लिए उन्होंने कई कि़स्म के प्रोग्राम शुरू किए। इन्हीं में से देवा मेला मुशायरा था। देवा मेला मुशायरा एक ऐसा मुशायरा है, जो अपने शुरूआती दौर से अपना मयार-ओ-वक़ार बनाए हुए है। यही वजह है कि उर्दू अदब के तमाम नामचीन शोअरा यहां आकर इस मुशायरा को उंचाईयां बख्शी हैं। 125 बरस पहले जब मुल्क में वसायल की कमी थी और ऐसे आयोजनों को कराना आसान न था। तब जिले के कई रउसा हजरात ने इस मुशायरे को कराने की जिम्मेदारी संभाली और तब से ये सिलसिला लगातार जारी है।
शुरूआती दौरा में वसायल की कमी से देवा मेला मुशायरा कराना आसान नहीं था। देवा मेला मुशायरा कमेटी के सेक्रेट्री चौधरी तालिब नजीब बताते हैं कि उस दौर में जब ज़राए अब्लाग़ इतनी कसीर तादाद में नहीं थे, तो शायरों तक पहुंचना एक बड़ा मसला होता था। उन्होंने बताया कि इसके लिए महीनों पहले से शायरों को मुशायरे की दावत का काम शुरू होता था। वो बताते हैं मेला शुरू होने के कई दहाइयों तक जब आऩे-जाने के जरिए ज्यादा नहीं थे, तो शायर मुशायरे से हफ्तों पहले पहुंचते थे और मुशायरे के बाद हफ्तों यहां रुकते थे। इस दौरान देवा और उसके आसपास के इलाकों में अदबी मङफिलों का दौर लगातार चतता रहता था।
देवा मेला मुशायरे की पहचान यहां होने वाली शायरी का मयार और वक़ार है। यही वजह है कि देवा मेला में कलाम पढ़ना खुशनसीबी समझी जाती है। करीब 100 बरस पहले तशकील हुई देवा मेला मुशायरा कमेटी मुशायरे के मयार और वक़ार को बरक़रार रखने में भी खूब मेहनत करती है। इसके लिए सालों भर कोशिशें जारी रहती हैं। देवा मेला मुशायरा कमेटी के सेक्रेट्री चौधरी तालिब नजीब बताते हैं कि हम मुशायरे में पेश होने वाली शायरी के मयार और वक़ार से कोई समझौता नहीं करते। इस मामले में किसी तरह की मदाख़लत को भी बर्दाश्त नहीं करते। उनके मुताबिक देवा मेला मुशायरा की पहचान ही मयारी शायरी है।
भले आज के दौर में जब मुशायरों के मक़ासिद में बदले हों, मुशायरे सियासत या कामर्शलाइज़ेशन से मुतासिर हुए हों, लेकिन देवा मेला का मुशायरा करीब साढ़े 300 बरस पुरानी उर्दू ज़ुबान की 125 बरस से तरक्क़ी और फ़रोग का जरिया बनी हुई है। तमाम बदलाव और असर के बावजूद ये अपना मयार और वक़ार पर क़ायम है और उर्दू अदब की तरक्की में अहम किरदार निभा रही है।
Deva Mela - Golden Date, Identity of Respect and Success

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